सैयद अब्बास - 1 Dear Zindagi 2 द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सैयद अब्बास - 1

उन्होंने कहा था कि अपनी शायरी का जितना मुन्किर मैं हूँ, उतना मुन्किर मेरा कोई बदतरीन दुश्मन भी ना होगा।
कभी कभी तो मुझे अपनी शायरी बुरी, बेतुकी लगती है इसलिए अब तक मेरा कोई मज्मूआ शाया नहीं हुआ।
और जब तक खुदा ही शाया नहीं कराएगा उस वक्त तक शाया होगा भी नहीं। तो ये इंकार का आलम था..

जौन ने मोहब्बत को लज़्ज़ते हयात कहा लेकिन शायद ख़ुद उनकी मोहब्बत बेलज़्ज़त रही।
और इस ज़ायक़े को बदलने के लिए उन्होने शराब से महोब्बत कर ली।
शराब इतनी पी के बाद में शराब उन्हें पीने लगी. शोअरा के हुजूम में जौन एक ऐसे लहजे के शायर हैं जिनका अंदाज़ न आने वाला कोई शायर अपना सका.. न गुज़रने वाले किसी शायर के अंदाज़ से उनका अंदाज़ मिलता है।
जौन इश्क़ और महोब्बत के मौज़ूआत को दोबारा ग़जल में खींच कर लाए।
लेकिन हां वो रिवायत के रंग में नहीं रंगे। बल्कि उन्होने इस क़दीम मौज़ू को ऐसे अंदाज़ से बर्ता कि गुज़रे जमाने की बातें भी नयी नज़र आयीं।

सूरज निकले ना निकले ,

चांद निकले ना निकले,

दुनिया बिखरे तो बिखरे,

इतिहास में गवाही मेरी निकले।

ग़ज़ल का रिवायती मक़सद महबूबा से बातें करना है लेकिन तरक़्क़ी पसंदी, जदीदीयत, वजूदीयत और कई तरह के इरादों के ज़ेरे असर उनकी शायरी में इश्क़ के अलग ही रंग नज़र आए...

हो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाद

देखने वाले हाथ मलते हैं,

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में

जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं।

अपने इसी अंदाज़ की वजह से, जौन अब तक के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में शुमार हैं।
जौन एलिया १४ दिसंबर १९३१ को अमरोहा में पैदा हुए. यहीं पले बढ़े।
तक़सीम के बाद १९५८ मे एलिया पाकिस्तान चले गए और कराची में मुस्तक़िल सुकूनत अख़्तियार की।
लंबी बीमारी के बाद जौन एलिया का कराची में ८ नवंबर २००२ को इंतेक़ाल हो गया।
लेकिन आख़िरी वक़्त तक उन्हे अपने वतने अज़ीज़ हिंदुस्तान से बिछड़ने का ग़म सताता रहा।
ख़ासकर अमरोहा का ज़िक्र तो उनकी बात बात में आता रहता था। वो सरहद पर बैठ कर कहते थे कि,

मत पूछो कितना गमगीं हूँ गंगा जी और जमुना जी

ज्यादा मै तुमको याद नहीं हूँ गंगा जी और जमुना जी

अपने किनारों से कह दीजो आंसू तुमको रोते है

अब मै अपना सोग-नशीं हूँ गंगा जी और जमुना जी

अमरोहे में बान नदी के पास जो लड़का रहता था

अब वो कहाँ है? मै तो वही हूँ गंगा जी और जमुना जी

जौन एलिया की विलादत उर्दू कैलेंडर के मुताबिक़ १३ रजब को हुई थी।
जौन इस बात को भी बार बार कहते थे कि, "मेरी विलादत और हज़रत अली की विलादत की तारीख़ एक है।"
इस पर बड़ा फ़ख़्र करते थे वो।
लेकिन जब किसी ने जन्मदिन की मुबारकबाद दी तो तपाक से कहा...

क्या कहा आज जन्मदिन है मेरा,
जौन तो यार मर गया कब का।

ये जौन की यादें हैं, बाते है, ज़िक्र है, जौन होना मज़ाक नहीं कमाल है।

ये है जब्र इत्तेफ़ाक़ नहीं
जौन होना कोई मज़ाक़ नहीं।